Hindi Paheliyan (हिंदी पहेलियों)
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Hindi Paheliyan (हिंदी पहेलियों)
पहेलियों की रचना में प्राय: ऐसा पाया जाता है कि जिस विषय की पहेली बनानी होती है उसके रूप, गुण एवं कार्य का इस प्रकार वर्णन किया जाता है जो दूसरी वस्तु या विषय का वर्णन जान पड़े और बहुत सोच विचार के बाद उस वास्तविक वस्तु पर घटाया जा सके। इसे बहुधा कवित्वपूर्ण शैली में लिखा जाता है ताकि सुनने में मधुर लगे। यह परंपरा भारत देश में प्राचीन काल से प्रचलित है। ऋग्वेद के कतिपय मंत्रों का इस दृष्टि से उल्लेख किया जा सकता है। यथा एक मंत्र
'चत्वारि श्रंगा त्रयो अस्य पादा, द्वे शीर्षे सप्त हस्तासोऽस्य।
त्रिधा बद्धो वृषभो रौरवीति, महादेवो मर्त्या या विवेश:।।'
अर्थात् जिसके चार सींग हैं, तीन पैर हैं, दो सिर हैं, सात हाथ हैं, जो तीन जगहों से बँधा हुआ है, वह मनुष्यों में प्रविष्ट हुआ वृषभ यज्ञ है, शब्द करता हुआ महादेव है। इसका गूढ़ार्थ यह है कि यह वृषभ जिसके चार सींग चारों वेद है, प्रात:काल, मध्यान्ह और सांयकाल तीन पैर हैं, उदय और अस्त दो शिर हैं, सात प्रकार के छंद सात हाथ हैं। यह मंत्र ब्राह्मण और कल्परूपी तीन बंधनों से बँधा हुआ मनुष्य में प्रविष्ट है। महाभाष्यकार पतंजलि ने इसे शब्द तथा अन्य ने सूर्य भी बताया है। ऋग्वेद में प्रयुक्त 'बलोदयों' से यह बताया जाता है कि पहेलियाँ जनता की विकासोन्मुख् अवस्था के साथ ही विकसित हुई थीं।
महाभारत के अनवरत लेखन के समय वेदव्यास जी बीच बीच में कुछ सोचने के लिए कूट वाक्यों का उच्चारण किया करते हैं। उन्हें बिना भली भाँति समझे गणेश जी को भी लिपिबद्ध करने की आज्ञा न थी। इस तरह एक प्रकार से किंवदंती के अनुसार पहेलियों की आड़ कें ही दोनों को यथासमय यथासाध्य विश्राम व अवकाश सोचने समझने के निमित्त मिलता जाता था। अतएव बृहद महाभारत में पहेलियों के प्रतीक वाक्यांश अनेक स्थलों पर जिज्ञासुओं को दिखाई देते हैं।
संस्कृत में पहेली को 'प्रहेलिका' या 'प्रहेलि' कहते हैं- 'प्रहिलति अभिप्रायं सूचयतीति प्रहिल अभिप्राय सूचने क्वुन्दापि अत-इत्वं।' इसके पर्याय प्रवल्हिका, प्रवह्लि, प्रहेली, प्रह्लीका, प्रश्नदूती, तथा प्रवह्ली है। यह चित्र जाति का शब्दालंकार है जो च्युताक्षर, दत्ताक्षर तथा च्युत दत्ताक्षर भेदवाली अनेकार्थ धातुओं से युक्त यमकरंजित उक्ति हैं। प्रहेलिका का स्वरूप 'नानाधात्व गंभीरा यमक व्यपदेशिनी' है। भामह ने इसका खंडन किया है और कहा है कि यह शास्त्र के समान व्याख्यागम्य है (काव्यालंकार २/२०)। इनके अनुसार इसके आदि व्यख्याता रामशर्माच्युत हैं (काव्यालंकार २.१९)। 'साहियदर्पण' के प्रणेता विश्वनाथ ने इसे उक्तिवैचित्र्य माना है, अलंकार नहीं, क्योंकि इससे अलंकार के मुख्य कार्य रस की परिपुष्टि नहीं होती प्रत्युत इसमें विघ्न पड़ता है (साहित्यदर्पण १०.१७)। किंतु विश्वनाथ ने प्रहेलिका के वैचित्र्य को स्वीकार करते हुए उसके च्यताक्षरा, दत्ताक्षरा तथा च्युतादत्ताक्षरा तीन भेदों की चर्चा की है। आचार्य दंडी ने साहित्यदर्पणकार के इस मत को स्वीकार करते हुए प्रहेलिका को क्रीड़ागोष्ठी तथा अन्य पुरुषों ने व्यामोहन के लिए उपयोगी बताया है। दंडी व प्रहेलिका के १६ भेदों का उल्लेख किया है यथा- समायता, वंचिता, व्युत्क्रांता, प्रमुदिता, पुरुषा, संख्याता, प्रकल्पिता, नामांतिरिता, निभृता, संमूढा, परिहारिका, एकच्छन्ना, उभयच्छन्ना, समान शब्दासंमृढ़ा, समानरूपा तथा संकीर्णासरस्वतीकंठाभरण (काव्या. ३.१०६)। जैन साहित्य में भी पहेलियों की यह परंपरा कायम रही। इसमें हीयाली जैसी रचनाएँ पहेलियों की अनुरूपता की सूचक हैं। इनके १२वीं तथा १३वीं शताब्दी में मौजूद
होन के प्रमाण मिले हैं। १४वीं से लेकर १९वीं शताब्दी तक जैन कवियों द्वारा लिखी गई पर्याप्त हीयालियाँ उपलब्ध हैं। राजस्थान की हीयालियाँ आड़ियाँ कहलाती हैं। संस्कृत की एक पहेली का नमूना इस प्रकार है-
'श्यामामुखी न मार्जारी द्विजिह्वा न सर्पिणी।
पंचभर्ता न पांचाली यो जानाति स पंडित:।।'
अर्थात् काले मुखवाली होते हुए बिल्ली नहीं, दो जीभवाली होते हुए सर्पिणी नहीं तथा पाँच पतिवाली होते हुए द्रौपदी नहीं है। उस वस्तु को जो जानता है वही पंडित है। (उत्तर-कलम)। कलम काले मुख की ही बहुधा होती है, जीभ बीच में विभाजित रहती है और पाँच उँगलियों से पकड़कर उससे लिखते हैं।
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